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सख्त हो सकती है खाद्य पदार्थों में मिलावट के अपराध की सजा

संसदीय समिति ने सरकार से की है सिफारिश

राज्यसभा को सौंपी गई है प्रस्तावित आपराधिक कानूनों की जांच रिपोर्ट सं
LP Live, New Delhi: देश में खाद्य पदार्थो में मिलावट करने वालों को कड़ा दंड दिया जाना इसलिए आवश्यक है कि उसका असर सीधा मानव जीवन और उसके स्वास्थ्य पर पड़ता है। इसलिए न्यूनतम छह माह की सजा और एक हजार जुर्माना ऐसे अपराधियों के लिए अपर्याप्त है, जिसे भारतीय न्याय संहिता में किये जा रहे संशोधन में इस सजा को बढ़ाना चाहिए।

केंद्र सरकार द्वारा संसद में पेश किये गये आपराधिक कानूनों को सख्त करने की दिशा में गृह मंत्रालय संबन्धी संसदीय स्थायी समिति ने तीन प्रस्तावित कानून क्रमशः आपराधिक प्रक्रिया संहिता अधिनियम, 1898, भारतीय दंड संहिता, 1860 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की जगह लेंने वाले विधेयकों की जांच पड़ताल के बाद अपनी रिपोर्ट राज्यसभा को सौंप दी है। गौरतलब है कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस-2023) विधेयक को 11 अगस्त को भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस-2023) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (बीएसए-2023) विधेयकों के साथ लोकसभा में पेश किया गया था। इस रिपोर्ट में प्रमुख रुप से समिति ने खाद्य पदार्थो में मिलावट से जुड़ी धारा में भी संशोधन करके इसे सख्त करने की सिफारिश की है। समिति की सिफारिश में कहा गया है कि इस धारा के तहत अपराध के लिए न्यूनतम छह महीने की सजा के साथ-साथ न्यूनतम 25,000 रुपये का जुर्माना लगाया जाए। समिति ने हानिकारक भोजन या पेय की बिक्री का जिक्र करते हुए कहा कि मिलावट के अपराध में बड़े पैमाने पर जनता को प्रभावित करने की क्षमता है और इस धारा के तहत अपराधियों के लिए निर्धारित की गई सजा भी अपर्याप्त है। वर्तमान में खाद्य पदार्थों में मिलावट के अपराध के लिए छह महीने तक की सजा या 1,000 रुपये तक के जुर्माने या दोनों हैं, जो अपर्याप्त है।

सामुदायिक सेवा शामिल करने का स्वागत
संसदीय समिति ने सरकार द्वारा संशोधन के लिए भारतीय न्याय संहिता के तहत दंडों में से एक के रूप में ‘सामुदायिक सेवा’ की शुरुआत को भी स्वागतयोग्य कदम करार देते हुए कहा कि यह अपराधियों से निपटने के लिए एक बहुत ही सराहनीय प्रयास और सुधारात्मक दृष्टिकोण है। दंड के रूप में इसकी शुरुआत की सभी हितधारकों द्वारा सराहना की गई है क्योंकि इससे न केवल जेल के कैदियों की संख्या कम करके जेल के बुनियादी ढांचे पर बोझ कम होगा, बल्कि देश में जेलों के प्रबंधन में भी सुधार होगा।

ये की गई प्रमुख सिफारिश
समिति ने यह भी सिफारिश की कि प्रस्तावित कानून में ‘सामुदायिक सेवा’ वाक्यांश की परिभाषा सम्मिलित करते समय सामुदायिक सेवा के रूप में दी जाने वाली सजा की निगरानी के लिए एक व्यक्ति को जिम्मेदार बनाने के संबंध में भी प्रावधान किया जा सकता है। समिति का मानना है कि सामुदायिक सेवा अवैतनिक काम है, जिसे अपराधियों को कैद के विकल्प के रूप में करने के लिए बाध्य किया जा सकता है। इसमें कहा गया है कि इसलिए समिति सिफारिश करती है कि सामुदायिक सेवा की अवधि और प्रकृति के बारे में बताया जाना चाहिए और उपयुक्त रूप से परिभाषित किया जाना चाहिए। गौरतलब है कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस-2023) विधेयक को 11 अगस्त को भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस-2023) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (बीएसए-2023) विधेयकों के साथ लोकसभा में पेश किया गया था। इन तीन प्रस्तावित कानून क्रमशः आपराधिक प्रक्रिया संहिता अधिनियम, 1898, भारतीय दंड संहिता, 1860 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की जगह लेंगे। संसदीय समिति की रिपोर्ट पिछले शुक्रवार को राज्यसभा में सौंपी गई थी।

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